
(रिपोर्ट – नर्मदेश चंद्र पाठक)
इतिहास में कई ऐसे विवाद होते हैं जो सदियों बाद भी बहस का मुद्दा बने रहते हैं। ऐसा ही एक प्रश्न है – क्या राणा सांगा ने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया था? यह सवाल न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि भारतीय राजनीति और राजपूत वीरता के प्रतीक राणा सांगा की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा है।
बाबर के आगमन को लेकर सबसे प्रमुख स्रोत है उसका आत्मकथात्मक ग्रंथ ‘बाबरनामा’। इसमें बाबर ने दावा किया कि उसे दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी के विरुद्ध राणा सांगा ने आमंत्रित किया था। बाबर ने उल्लेख किया कि राणा सांगा और अफगान सरदारों ने उसे निमंत्रण भेजा ताकि वह इब्राहिम लोदी को पराजित कर सके।वादा था कि दिल्ली विजय के बाद सत्ता का एक बड़ा हिस्सा बाबर को मिलेगा और शेष पर राजपूतों का प्रभुत्व रहेगा।लेकिन, इब्राहिम लोदी को हराने के बाद बाबर ने अपनी सत्ता स्थापित करने का निश्चय किया।
हालाँकि इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। प्रो. सतीश चंद्र उनका मानना है कि बाबर का दावा संदेहास्पद है। राणा सांगा जैसे स्वाभिमानी और पराक्रमी राजा से यह अपेक्षा करना कि वह विदेशी आक्रमणकारी को सहायता के लिए बुलाएगा, तार्किक नहीं लगता। यह संभव है कि बाबर ने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस कथन का निर्माण किया हो। डॉ. आर.सी. मजूमदार उनके अनुसार, यह कहना कठिन है कि सांगा ने स्वयं बाबर को बुलाया था।राजपूतों का इतिहास विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध संघर्ष का रहा है। सांगा का उद्देश्य दिल्ली पर हिंदू प्रभुत्व स्थापित करना था, न कि किसी विदेशी को सत्ता सौंपना। विन्सेंट स्मिथ (पश्चिमी इतिहासकार) उनका मत है कि सांगा ने बाबर से संपर्क किया था, क्योंकि वह लोदी के खिलाफ मजबूत समर्थन चाहता था। हालांकि, वह भी मानते हैं कि बाबर ने इस अवसर का लाभ उठाकर स्वयं सत्ता पर अधिकार कर लिया।
वैसे राजपूत लोक कथाओं और राजस्थान के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में कहीं भी इस बात का प्रमाण नहीं मिलता कि राणा सांगा ने बाबर को बुलाया था।राजपूत स्वाभिमान: राणा सांगा की वीरता और स्वाभिमान के विपरीत यह सोचना असंभव है कि वे एक विदेशी आक्रांता से सहयोग मांगते।रणनीतिक भूल या राजनैतिक कूटनीति: संभवतः सांगा ने बाबर के आगमन को हल्के में लिया हो, लेकिन सक्रिय रूप से निमंत्रण देने का दावा संदिग्ध है।
इतिहास के पन्नों में सत्ता के संघर्ष अक्सर कूटनीतिक खेलों से भरे होते हैं। बाबर ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद यह समझ लिया कि एक मजबूत साम्राज्य स्थापित करने के लिए केवल दिल्ली को जीतना पर्याप्त नहीं था। राजपूत संघ का नेतृत्व कर रहे राणा सांगा से टकराव अनिवार्य था।इसलिए, बाबर ने राजनैतिक दाव-पेंच खेलते हुए राणा सांगा को “विश्वासघाती” सिद्ध करने का प्रयास किया। 1527 में खानवा का युद्ध भारत के भविष्य को बदलने वाला निर्णायक मोड़ था। बाबर ने “जिहाद” का नारा देकर अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया।राणा सांगा ने अपनी वीरता और स्वाभिमान के साथ युद्ध लड़ा, लेकिन बाबर की रणनीतिक चालें भारी पड़ीं। इस युद्ध में बाबर ने न केवल तोपों का कुशल प्रयोग किया, बल्कि राजपूतों की युद्धनीति को भी भांप लिया।
अब सवाल उठता है कि क्या इतिहास ने न्याय किया? इतिहास ने हमेशा विजेताओं की कहानियों को प्रमुखता दी है। बाबर ने अपनी विजय को सही ठहराने के लिए राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाया। लेकिन सच्चाई यह है कि राणा सांगा एक राष्ट्रवादी योद्धा थे, जो विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ संघर्षरत थे।
क्या बाबर ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए यह कथा गढ़ी? क्या राणा सांगा ने दिल्ली विजय के लिए कूटनीतिक साझेदारी की थी?या फिर यह मात्र बाबर की विजयी कथा का हिस्सा था?
इतिहास के पन्नों में कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। बाबर और राणा सांगा के बीच का यह विवाद भी उन्हीं में से एक है।यदि निमंत्रण का दावा सत्य था, तो राणा सांगा की वीरता पर प्रश्नचिह्न लगता है।यदि यह केवल बाबर का कूटनीतिक झूठ था, तो उसकी सत्ता स्थापना के प्रयास में छल की झलक दिखती है।